
जयपुर।
जब जीवन राहें नहीं देता, तब हौसले रास्ते बना लेते हैं। बीकानेर के गंगाशहर से निकलकर झुंझुनूं के रतनशहर होते हुए जयपुर तक पहुंची सुशीला सारस्वत की जीवन यात्रा नारी शक्ति की असली तस्वीर है। यह कहानी है एक ऐसी महिला की, जिसने सीमित संसाधनों, सामाजिक जिम्मेदारियों और उम्र के दायरे के बावजूद न सिर्फ खुद को संवारा, बल्कि अब दूसरों के लिए प्रेरणा बन गई हैं।
सात बहनों के बीच पली-बढ़ी सुशीला जी का बचपन संघर्षों से भरा था। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, लेकिन मां का सपना था कि बेटियाँ पढ़ें, आगे बढ़ें। उसी मां की प्रेरणा ने सुशीला को कभी थमने नहीं दिया।
लेखन से शुरू हुआ आत्म-बोध
बचपन से ही सुशीला को लेखन का शौक था। कहानियाँ, कविताएं और ग़ज़लें उनकी डायरी की साथी रहीं। पर शादी के बाद जिम्मेदारियों ने उनके सपनों को कुछ समय के लिए रोक दिया। घर, बच्चे, और रिश्तों को सँभालते-सँभालते उन्होंने खुद को भूलना सीख लिया। लेकिन एक दिन वक्त ने करवट ली — बच्चे बड़े हुए और जीवनसाथी ने उनके भीतर की सुशीला को फिर से जागने का हौसला दिया।
भाजपा की सक्रिय महिला नेता और समाजसेविका
आज सुशीला सारस्वत भारतीय जनता पार्टी में रिद्धि-सिद्धि मंडल मंत्री के रूप में सक्रिय हैं। साथ ही समाज सेवा के अनेक कार्यों में जुटी हुई हैं। वे उन महिलाओं के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित करती हैं जो कभी सपने देखती थीं, लेकिन उन्हें पूरा नहीं कर पाईं। वे कहती हैं –
> “एक औरत जब खुद को पहचान लेती है, तब उसका जीवन केवल उसका नहीं रहता — वह औरों के लिए रास्ता बन जाती है।”
उनका बेटा और पति व्यवसाय से जुड़े हैं, बेटी जयपुर में फ्रेंच भाषा पढ़ाती हैं। पूरा परिवार आज उनके काम में न सिर्फ साथ देता है, बल्कि उन्हें प्रेरित भी करता है।
“मैं कोई खास नहीं थी, पर मेरे हौसले खास थे”
सुशीला जी का जीवन बताता है कि उम्र या परिस्थितियाँ कभी भी रास्ता नहीं रोक सकतीं। उन्होंने अपने संघर्षों को ताकत में बदला और अब दूसरों के लिए आशा की किरण बन चुकी हैं।
> “मैं जब उड़ने लगी, तो महसूस हुआ कि पिंजरा तो मेरे भीतर ही था — अब जब खुले आसमान में हूं, तो चाहती हूं औरों को भी उनके पंख याद दिला सकूं।”
सुशीला सारस्वत की यह यात्रा हर उस महिला को समर्पित है, जो कभी खुद को खो बैठी थी — लेकिन अब समय है, फिर से खुद को जीने का।